Friday, December 2, 2011

कैसे चले भारत की संसद ?

कैसे चले भारत की संसद ?
कुछ युवा सांसदों ने मांग की है कि जो सांसद संसद का सत्र नहीं चलने देते हैं, उन पर किसी तरह का जुर्माना ठोका जाना चाहिए। यह मांग सुनने में बड़ी अच्छी लगती है, क्योंकि संसद पर हर मिनिट यह देश करोड़ों रूपए खर्च करता है। इसके अलावा संसद के बंद रहने के कारण न तो कानून ठीक से बन पाते हैं, न महत्वपूर्ण मुद्दों पर समुचित बहस हो पाती है और न ही सरकार के काम-काज पर निगरानी रखी जाती है। संसद का बंद रहना लगभग ऐसा है, जैसे कोई लोकतंत्र बेहोश होकर पलंग पर लेट गया हो।

यह स्थिति निश्चय ही चिंतास्पद है। यों भी हमारी संसद पूरे साल में मुश्किल से छह माह के लिए समवेत होती है। इस छोटी-सी अवधि में भी कभी वह 30 दिन बंद रहती है, कभी 60 दिन और 15-20 दिन तो वह अक्सर बंद हो जाती है। आजकल भी यही हो रहा है। खुदरा व्यापार में विदेशी पूंजी के निवेश को लेकर संसद का काम-काज ठप्प है।

इसके लिए पक्ष विपक्ष को और विपक्ष पक्ष को जिम्मेदार ठहरा रहा है। यह ठीक है कि संसद को विपक्ष ही नहीं चलने दे रहा है लेकिन क्यों नहीं चलने दे रहा है? वह मांग कर रहा है कि देश के करोड़ों लोगों की रोटी-रोज़ी छीननेवाला यह निर्णय करने के पहले सरकार को इस पर संसद में बहस करवानी चाहिए थी। इसमें गलत क्या है? सरकार बहस से क्यों डर रही है? हो सकता है कि खुली बहस के कारण कई गलतफहमियॉं दूर हो जाएं। शायद सरकार का पक्ष मजबूत हो जाए। सरकार में भी जो ढुलमुल लोग हैं, वे उसके साथ मजबूती से खड़े हो जाएं। विरोधी भी पिघल जाएं। लेकिन बहस को टालने का अब एक नया बहाना ढूंढ लिया गया है। वह यह है कि एक साथ दो स्थगन प्रस्ताव नहीं रखे जा सकते। एक पहले से ही आया हुआ है, काले धन पर और अब यदि दूसरा विदेशी निवेश पर आ गया तो उस पर मतदान करवाना पड़ेगा। मतदान में सरकार हार गई तो उसकी बड़ी किरकिरी होगी। होगी तो हो जाएगी। उसे इस्तीफा तो नहीं देना पड़ेगा। क्या अभी किरकिरी नहीं हो रही है? अभी किरकिरी भी हो रही है और संसद भी बंद पड़ी है।
यदि सरकार को मतदान के पहले लगे कि वह हार जाएगी तो वह अपने निर्णय को तत्काल रद्द भी कर सकती है। यह उसके द्वारा सदन का सम्मान होगा। फिर मतदान क्यों होगा? सरकार चाहे तो अपने लिए वह सम्मानजनक रास्ता निकाल सकती है। वह ऐसा नहीं करके क्या खुद को संसद ठप करने का दोषी सिद्ध नहीं कर रही है?
जहां तक संसद को निरंतर चलाए रखने का प्रश्न है, इसमें सांसदों पर जुर्माना थोपने से क्या हासिल होगा? करोड़ों-अरबों के मालिक इन सांसदों को जुर्माने से क्या फर्क पड़नेवाला है और संसद चलाने के लिए मार्शलों का सहारा लेने का सुझाव तो बहुत ही नादानीभरा है। सारे विपक्ष को डंडे के जोर पर सदन से बाहर निकालकर आप कौनसी ताली बजा पाएंगे? क्या आज तक दुनिया में कोई एक हाथ से ताली बजा पाया है? यह हल तो आपात्काल से भी बदतर है। क्या हम भारत की संसद को मुसोलिनी और हिटलर की संसद बनाना चाहते हैं?